कालभेदी भजन

दौहा - निः अच्छरसे अक्षर उपज्यो , अक्षर कियो प्रकाश ।
          अक्षर से मन ऊपजा , सुनियों धर्मीदास ।।
         मन से माया उपजी , माया से त्रिगुण रुप ।
         पांच तत्व के महल में , बांध्या सकल स्वरूप।।


टेर- स्वर्ग पाताल रच्यो मृत्युमंडल , तीन लोक विस्तारा रे
      निरन्जन जाल पसारा रे संतो, निरंजन जाल पसारा ।।

(1) ब्रम्हा विष्णु शंभू प्रकट कर , ज्यानें दियो सिर भारा रे ।
      ठाम ठाम तीर्थ व्रत रोप्या , ठगवे को संसारा रे ।।
(2) लख चौरासी जीव फंसाये , कबहु न होत उभारा रे ।
      बार बार भस्मी कर डारे , फिर फ़िर देवे अवतारा रे ।।
(3) आवागमन में राखे उलजाई , डुबोवे भव की धारा रे ।
     सतगुरू शब्द चीन्या बिना रे नर , कैसे उतरे पारा रे ।।
(4) माया फांस सकल जीव फांसे , आप बण्यो करतारा रे ।
     अमर लोक जंहा सतपुरूष बिराजे , वांकों मूंद दियो द्वारा रे ।।
(5) नेम धर्म आचार यज्ञतप , ये उरले व्यवहारा रे ।
     मिले जो अखंड मोक्ष पद , वो मारग हे न्यारा रे ।।
(6) महाकाल से बचना चाहो , गेहो शब्द तत्सारा रे ।
      कहे कबीर अमर कर रांखू , जो निज होवे हमारा रे ।।

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