इन्द्रिय वशीकरण

मृतक भाव है कठिन धर्मनि, अपनाये कोई सूर ही ।
कायर सुनके ही डरे, अपनाना तो दूर ही ।
जैसे सुनके शिष्य संवरता, पाकर के गुरु ग्यान को ।
समझे मृतक भेद वही, जो आये द्वीप अमान को ।
मृतक जीव ही साधू है, वहीं सद्गुरु को पाय ।
जीव क्या उससे फिर, देव भी आशा पाय ।
साधू मार्ग कठिन धर्मदास, सत् कर्मो का रहे वो दास ।
पांचों इन्द्रि वश कर राखे, नाम का रस वो निशदिन चाखे ।
प्रथम नैत्र इन्द्रि को साधै, गुरु क बताया पथ फिर साधे ।
सुन्दर रुप आंखों को भाता, रुप कुरूप ना उसे सुहाता ।
रुप कुरुप को समान समझना, सबमें आत्मा दर्शन करना ।
कान वचन शुभ सुनना चाहे, कटु वचन ना उसको भाये ।
मधुर कटु लगे एक समान, शिष्य को गुरु का ये ही ग्यान ।
नाशिका इन्द्रि खुशबू अधीन, इसे सम राखे संत प्रवीन ।
जीभ इन्द्रि स्वाद बतावै, खट्टा मीठा चटपटा भावै ।
संत को लेकिन जो भी आवे, रूखा फीका प्रेम से खावे ।
जो कोई पंचामृत ले आवे, उसको देख नही हर्षावे ।
तजे ना रूखा फीका साग, खाये प्रेम से इच्छा त्याग ।
जननेन्द्रिय है महा अपराधी, विरला साधू ने इसको साधी ।
कामनि रुप है काल की खान,तजना इसे ही है गुरु ग्यान ।
काम की इच्छा तन जो आवे, जीव स्वयं को उससे बचाये ।
सुर नर मुनि गण यक्ष गन्धर्व, सबको करें बेहाल है ।
सबहि लुटे विरले छूटे, ग्यानी गुण से जो द्रढ रहे ।
गुरु के ग्यान को जानकर, सद् मार्ग पर जो चले ।
ग्यान का प्रकाश जो, ह्रदय मे अपने करें ।
सद्गुरु शब्द को ध्याईये, भागे काम उसे देख के ।।

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