Nirgun bhajan
दोहा - जिन खोजा तिन पाईंयां , गहरे पानी बैठ ।
मैं बहुरि डूबन डरी , रही किनारे बैठ ।। नाम लिया ज्योंं सब लिया , सब शास्त्रों का भेद।
और बिना नाम नरकै गया, चाहे पढ लिख चारो वेद।।
कौडी साटै गुरु घणा , और कौडी मे मिले पचास ।
राम नाम बेचता फिरे , और करे शिष्य की आस ।।
सामरथ वही संसार में , ज्याने राखो सिर का ताज ।
जाला काट दे जीव का , और ले जावे अपने साथ ।।
योगी कहे तू योग कर , और तपसी कहे तप से मरो ।
साधू कहे तू यज्ञ कर , और पंडित कहे तीर्थ करो ।
भोगी कहे तू भोग कर , पर भोग मिलता भाग से ।
त्यागी कहता तू त्याग देरे, भोग को बैराग से ।।
अल्पत अवधि जीव की , तामें बडा सोच मोच ।
करने को बहुत है , पर क्या क्या कीजिए ।।
पुरानन का पार नहीं , वेदन का अंत नहीं ।
बाणी तो अनेक है, चित्त कहा कहा दीजिए ।।
काव्य की कला अनन्त , छन्द कहे बंद बहुत ।
राग तो रसीले रस , क्या क्या पीजिए ।।
पर सौ बातों की एक बात ,सतगुरु समझाय जात ।
जो चाहो कल्याण तो , बस गुरु का नाम लिजिये ।।
एक से एक ऊंचा गाया, पर अनुभव ऐसा पाया है ।।
कि दुनिया दिगम्ब जगत का पाखंड, इनमें भोला भोला जीव भरमाया है ।।
बावन अक्षर लोक फिरे , ओर शंम्भू इसके माही ।
सब अक्षर फिर जायेगा ,लेकिन वो अक्षर इसमे नाहीं ।।
भजन - आऔ संतो करलो विचार , ऐ कौन शब्द से उतरोगे पार ।
अरे निराकार निज निकलंक ध्याऔ जी..।।
1- औ सूरो होई थारो खड्ग संभाल , ऐ सोहम शब्द बिच बांधो तलवार ,
औ इन रे मनडे ने दृढ़ कर राखो जी..।
आऔ संतो करो रे.......
2- ओ ईंगला पिंगला सुखमण नार , ऐ आन पडी रे फुलडा री गलमाल ।
ओ ओहंग सोहंग का करो विचारा जी ।
औ आऔ संतो करो रै...।
3- ओ रंग महल मे होई रणुकार , थारी सुरत बिच पडे झनकार ।
अरै मंदिर मंदिर थारी झालर बाजै जी ।
औ आऔ संतो करो ...।
4- औ उन अक्षर की महिमा अपार , ऐ गुरु कृपा से पावोगा सार ।
अरि अमर दास गुरु प्रेम से मिलेगा जी ।
आऔ संतो करो विचार...।।
मैं बहुरि डूबन डरी , रही किनारे बैठ ।। नाम लिया ज्योंं सब लिया , सब शास्त्रों का भेद।
और बिना नाम नरकै गया, चाहे पढ लिख चारो वेद।।
कौडी साटै गुरु घणा , और कौडी मे मिले पचास ।
राम नाम बेचता फिरे , और करे शिष्य की आस ।।
सामरथ वही संसार में , ज्याने राखो सिर का ताज ।
जाला काट दे जीव का , और ले जावे अपने साथ ।।
योगी कहे तू योग कर , और तपसी कहे तप से मरो ।
साधू कहे तू यज्ञ कर , और पंडित कहे तीर्थ करो ।
भोगी कहे तू भोग कर , पर भोग मिलता भाग से ।
त्यागी कहता तू त्याग देरे, भोग को बैराग से ।।
अल्पत अवधि जीव की , तामें बडा सोच मोच ।
करने को बहुत है , पर क्या क्या कीजिए ।।
पुरानन का पार नहीं , वेदन का अंत नहीं ।
बाणी तो अनेक है, चित्त कहा कहा दीजिए ।।
काव्य की कला अनन्त , छन्द कहे बंद बहुत ।
राग तो रसीले रस , क्या क्या पीजिए ।।
पर सौ बातों की एक बात ,सतगुरु समझाय जात ।
जो चाहो कल्याण तो , बस गुरु का नाम लिजिये ।।
एक से एक ऊंचा गाया, पर अनुभव ऐसा पाया है ।।
कि दुनिया दिगम्ब जगत का पाखंड, इनमें भोला भोला जीव भरमाया है ।।
बावन अक्षर लोक फिरे , ओर शंम्भू इसके माही ।
सब अक्षर फिर जायेगा ,लेकिन वो अक्षर इसमे नाहीं ।।
भजन - आऔ संतो करलो विचार , ऐ कौन शब्द से उतरोगे पार ।
अरे निराकार निज निकलंक ध्याऔ जी..।।
1- औ सूरो होई थारो खड्ग संभाल , ऐ सोहम शब्द बिच बांधो तलवार ,
औ इन रे मनडे ने दृढ़ कर राखो जी..।
आऔ संतो करो रे.......
2- ओ ईंगला पिंगला सुखमण नार , ऐ आन पडी रे फुलडा री गलमाल ।
ओ ओहंग सोहंग का करो विचारा जी ।
औ आऔ संतो करो रै...।
3- ओ रंग महल मे होई रणुकार , थारी सुरत बिच पडे झनकार ।
अरै मंदिर मंदिर थारी झालर बाजै जी ।
औ आऔ संतो करो ...।
4- औ उन अक्षर की महिमा अपार , ऐ गुरु कृपा से पावोगा सार ।
अरि अमर दास गुरु प्रेम से मिलेगा जी ।
आऔ संतो करो विचार...।।
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